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खेजड़ली बलिदान : खेजड़ली री कथा

खेजड़ली बलिदान : खेजड़ली री कथा


//कुंडलिया//

मनख मिटावै बिरछ नै, बिरछ बचावै मनख ।
लै भाया बिरछ लगाव, प्रेम जीवन मैँ भर ॥
प्रेम जीवन मैँ भर मिलसी ठाडी छाँवङी।
सांसा रो आधार  लंघेला पार नावङी ॥
कहे किसन चित्त लाय रूंखङा न वाडो मनख ।
मनख मिटावै बिरछ नै, बिरछ बचावै मनख ॥



सतरा सै सँवताँ बरिष सतासी गये बीत 
मास भादो सुदी दसम
जग उजासि व्रख प्रीत ॥
ज्यूं कृष्ण सुदाम मीत, रूँखा तांही जुद्ध भयो ।
रूँखा तांही जुद्ध भयो, आत्मदळ व्रखाँ दुःख सयो ॥ किसनो कथा बखाण आत्म रूँखा रलि निर्वाण ।
हुयो न होसी ओर  आरण रूँखा री त्राण ॥ 



अभै सिँघ हुकम भाखियो, सूण भण्डारी आय ॥
नूँवी नीँव कठै भराँ, बतावो चित्त सुवाय ॥1॥

नूँव निर्माणाँ खर्च बढ़े, उपङे रिपिया लाखुँ ॥
बिलंदै सूं जुद्ध जीतिया, हमैँ और के भाखुँ ॥2॥

जुद्ध जीतियाँ मन आवी, राते सुपणे बात ॥
नूँवो महल बणावस्या, टक्का री काँइ बात ॥3॥

महल निर्माण सुरु भयो, दीवाँण निरखै काज ॥
चूनो पकतो रह गियो, खुटी लकड़याँ राज ॥4॥

जद अभै यूँ उचावियो,  प्रबंध करो दीवाँण ॥
सूखी लकङयाँ लाय'न, सुरू करो निर्माण ॥5॥ 

गिरधर मजुराँ लेय नै, उण दिख हाख्यो ऊँठ ॥
जिण दिख दीसे घणेरा, खेजङियाँ रा ठूँठ ॥6॥

उण जाँ रोक्या ऊँठङाँ, जित कल्प बिरछ गाँव ॥
ठाडो चालै बायरौ, ठाडी गाढ़ी  छाँव ॥7॥

रूँखङला वाढण हुया, ठक ठक कुल्हाङि सोर ॥
गाँवाळा आय भिङया, हंगामो मच्यो जोर ॥8॥

किण आदेसाँ आविया, पूछ्यो किण नै और ॥
रूंख रूँखाळा न वढे, विष्णोइयाँ रे ठोर ॥9॥

अभैसिँघ न्रप हुकुम सूं, आविया वाढण रूँख ॥
गिरधर म्हारे नाँव सूं, अबे चलेला टूँक़ ॥10॥

प्रेम भाव सूं विणती,  ना वाढो रूँख अठ ॥
उण दिख हाखो ऊँठङा सूखी ठुँठ मिले जठ ॥11॥

गिरधै'न काळ कोपियो, आदेसाँ री आँण ॥
वाढा लाँ अठे रूंखङा, राजा रे फरमाण ॥12॥

ह्वैला हुय आगै उभा, नहीं वढेला रूंख ॥
धोळा मैँ धुड़ नखैली, मयान धरलो टूक़ ॥13॥

घण दळ देख'नै गिरधर रो चाल्यो नी जोर ॥
जोधाणे जावे गिरधो, थाने देखस्युँ और ॥14॥

काळ भाळ कू टाळता, गयो जोधाणे देस ॥
घिर फिर पूठो आवसी, धर कर आरण भैस ॥15॥

पँचा वँचा भेळा हुय'न, कीवी वात विमरस ॥
बेगा इण काळ-टाळ नूँ, कराँ किण विध सरस ॥16॥

आपण आपि बिरादरी, मेलाँ कागळ संनेस ॥
गिरधणो काळ कोपियो, रूँखा तणो कलेस ॥17॥

एकण पाने लखि दियो, चौराहि तणो संनेस ॥
वेगा रलि मिल आवजो, धर रुख-आळा भेस ॥18॥

सूण कागळ संनेसङो, मनङ हुयो घण रोष ॥
सगळा उण दिख हालिया, जिण दिख आरण घोष ॥19॥

साँझ हुवै पहुँता सगळा,  खेजङळी गाम मँझ ॥
प्रभातै आरण तिमिरह, जुटावो आपण सँझ ॥20॥


हिंसा हूँता हिंसा फळे, निमळ धरम री साख ॥
जीव दया हे पालणी, देह तणा बिरछ राख ॥21॥

मिरगल्याँ करवल करै, प्रभातै प्रकास भयो ॥
प्रभातै प्रकास भयो,  आत्म आरण आघङियो ॥22॥

एकल पासै आत्म थाट, बांरे दाताह सँझ ॥
दूजे पाळै अभै अण-ई, गिरधर उभो छै मँझ ॥23॥

गिरधर ऊँचो भाखियो, रख मनङे मांह दंभ ॥
पाछे पगल्या धरो अब, न आवैली बन अंब ॥24॥

धरा धुजै, अम्बर गूँजे, गूँजी जोर अवाज ॥
चहूँ दिख चानण भयो, तिमिर गयो छै भाग ॥25॥

ए रूंख छै म्हारी जान, अमृता अलौक घोष ॥
स्नानी आगै आविया, भर भर मनङै जोस ॥26॥

सिर साँटे रूंख रहेह, तो भी सस्तो इ जाण ॥
रूँख रखावाँ देह दे, राख जाम्भ गुरु माण ॥27॥

रुँखा लिपट्या नर-नार, भुजंग चंदन बन मांहि ॥
पागळ पण रो आदेस, लिपट्या दिसत नाहीँ ॥28॥

लिपट्या दिसत नाहीँ, आरण रात मावस री ॥
नियति खेले खेल लुकाय उडियणनूँ अम्बहरि ॥29॥

देह रूँका टूक़ा झङे, केसर कीच अथाह ॥  
केसर कीच अथाह, देह दे दरखत बचाह ॥30॥

एकण समै  बै उठिया, पहुँता सुरगअइ ठोर ॥
एहडो  आरण जग मह, हुयो न होसी ओर ॥31॥

उडियण बिरजै अंबहरि, हरे जग तिमिर लाग ॥
आत्म दळ सूँ जुद्ध करताँ, अभै सूर मँह दाग ॥32॥



॥ कुंडलिया ॥

व्रखां मनख लिया समाय, ज्यूं कृष्ण सुदाम सखे।
पाणी दूध मँह समाय, ज्वाल जर दूध रखे ॥
जग प्रेम प्रीत निभावे, करदाँ माणस भखे ।
करदाँ माणस भखे, जग उजासे धरम सखे ॥
कह किसनो चित्त लाय, देह प्रेम इमरत  झरे ।
मरू मँझ तरू तणो, केसर बहे ताल भरे ॥





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