खेजड़ली बलिदान : प्रकृति की रक्षा करने वाले बिश्नोइयों की वीरता की एक अनसुनी कहानी
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खेजड़ली बलिदान |
प्रकृति के सजग प्रहरीयों की यह शौर्य गाथा विचित्रता की पराकाष्ठा को छुती हुई है। प्रकृति के इन पुजारीयों का इतिहास “बिश्नोईज्म” के नाम से 15वीं सदी में शुरू होता है।
भगवान श्री जांभोजी ने संवत् 1542 कार्तिक वदी अष्टमी को बिश्नोई धर्म की स्थापना कर अनेक धर्म-समुदाय के लोगों को बिश्नोई बनाये और उन्हें 29 धर्म नियम रूपी आधार स्तंभ प्रदान किये जो समस्त मानव जाति ही नहीं अपितु प्रकृति व जीव-जंतुओं के कल्याण से ओत-प्रोत है। बिश्नोई लोग गुरु जाम्भोजी द्वारा प्रदत्त आधार स्वरूप धर्म नियमों पर चलने लगे। उन्होंने अपने जीवन में धर्म नियमों को धारण कर रखा था और सदैव प्रकृति की रक्षा को लेकर संकल्पबद्ध रहे।
प्रकृति के सजग प्रहरी कैसे कहलाए बिश्नोई?
बिश्नोइज्म मानवता में प्रेम का संचार लेकर आया। समय अपनी गति से चलता और बदलता रहा। प्रकृति प्रेमी गुरु के बताए नियमों पर चलते रहे और मरुस्थल भी हरा-भरा होने लगा। जगह-जगह मरुधरा का कल्पतरू (खेजङी) व अन्य पौधों की संघनता में अधिक वन्यजीव दृष्टिगोचर होने लगे। धर्म नियमों पर चलते हुए रामङावास की करमा और गौरा ने वृक्ष रक्षार्थ कुर्बानी दी । करमा और गौरा को बिश्नोई लोग प्रेरणा स्रोत मान व गुरु के बताई राह चलते हुए प्रकृति के बहुत निकट हो गये या ऐसा कहें प्राकृतिक संपदा रक्षण बिश्नोईयों की स्वाभाविक मनोवृत्ति बन गई। प्रकृति के प्रति इसी समर्पणता के कारण बिश्नोई प्रकृति के सजग प्रहरी कहलाए।
समय ने करवट बदली और बिश्नोई धर्म स्थापना के 2 सदी बाद एक दिन ऐसा आया जिसकी परिकल्पना मात्र से ही रूह कंपकंपा जाये, समय वहीं रुक सा गया। धरती पर मानों अस्त होते सुर्य की स्वर्णाभा बिखरी हो(पश्चिमी राजस्थान में संध्या के समय अस्त होते सुर्य से बिखरे लालवर्ण से रेतीले धोरे पर स्वर्ण स्वरूप चमक आ जाती है) । ऐसा प्रतीत होने लगा जैसे मां भारती रुदन कर रही है ।।
Bishnoi Movement: यह कहानी है खेजङली बलिदान के उन वीरांगनाओं और वीरों की जिन्होंने समूचे विश्व के कल्याण हेतु प्रकृति रक्षार्थ आत्मोसर्ग किया। यह घटना है राजस्थान के तत्कालीन जोधपुर रियासत से 25 किलोमीटर दूर दक्षिणी दिशा में स्थित बिश्नोई बहुल वाले छोटे से गांव खेजङली की; जहां वृक्ष रक्षार्थ बिश्नोईयों द्वारा सामूहिक रुपेण आत्माहुति दी गई जो वैश्विक परिदर्शय में एक मात्र ऐसी घटना है यह कालजयी घटना विश्व के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में मंडित है।
जोधपुर के राजा अजीतसिंह की मृत्युपरांत उनके पुत्र अभयसिंह राजा बने। अभयसिंह के राजा बनते ही उन्हें बाहरी आक्रमणों को झेलना पड़ा ।1730 युद्धोपरांत अभयसिंह ने नए भवन बनाने का निश्चिय किया। इस संदर्भ में उन्होंने अपने महामंत्री गिरधर भंडारी से विचार-विमर्श किया तो गिरधर ने उन्हें कहा- हे राजन! वर्तमान में राज्य के धनाकोष की माली हालात है तो भवन का निर्माण कैसे संभव है और जो भवन निर्माणाधीन है उसे पूर्ण-रूप देने हेतु चुने को पकाने के लिए लकड़ीयोँ की आपूर्ति भी आवश्यक है, महाराज! यदि आपकी आज्ञा हो तो मैं स्वयं इसकी व्यवस्था कर दूं। मेरी दृष्टि में यहां पास ही में बिश्नोईयों के गांवों में खेजङली के वृक्ष प्रचुर मात्रा में है। उन्हें कटवाकर चुना पकाने के काम ले लेंगे जिससे अपनी समस्या भी हल हो जाएगी और आर्थिक बोझ भी नहीं बढ़ेगा।
करते हुए कहने लगे -
इस पर राजा अभयसिंह ने उसे समझाते हुए कहा कि तुम जिन बिश्नोई बहुल गांवों की बात कर रहे हो। वहां बिश्नोई हरे वृक्ष नहीं काटने देंगे वो लोग जांभोजी के शिष्य है कदाचित तुम्हें खाली हाथ लौटना पड़े। तो गिरधर ने चातुर्यपूर्वक धीरे से कहा राजन्! मेरे कहने को अन्यथा न ले परंतु अगर वो पेड़ न काटने को कहेंगे तो हम उनके समक्ष इसके एवज में आर्थिक कर स्वरूप धन की मांग कर देंगे जिससे हम अन्यत्र से पेड़ों की व्यवस्था कर लेंगे और इसे वो स्वीकार भी कर लेंगे। इस तरह अपनी बातों से राजा को आश्वस्त कर गिरधर ने कुछ सैनिकों के साथ खेजङली को प्रस्थान किया। खेजङली पहुंचते ही सैनिक नगाङे को पिटते हुए उच्चस्वर में उद्यघोष करते हुए कहने लगे:
इस राज ध्वनि को सुनकर वहां बिश्नोई लोग पहुँचे और सेनापति से विनम्र पूर्वक कहा, हे वीर सेनानायक आखिर राजा को ऐसी क्या नौबत आई जो हरे वृक्षों को कटवाने का निश्चय किया है। इस पर सेनापति ने कहा महाराज को नये भवन के निर्माण हेतु चुने को पक्काने के लिए भारी मात्रा में लकड़ीयोँ की आवश्यकता है जिसकी पूर्ति यहां के वृक्षों की कटाई से ही संभव है। तो यकायक एक सज्जन बोल पड़े कदाचित नहीं, हरे वृक्ष तो देवतुल्य होते है। इनमें भी प्राण होते है इन्हें कटवाकर हम पाप के भागी नहीं बन सकते। और हम तो गुरु जांभोजी के अनुयायी है हमारा धर्म हमें सदैव प्रकृति की रक्षा को प्रेरित करता है। यह कार्य हमारी मनोवृत्ति के विरुद्ध है आप यहां कदापि वृक्ष नहीं काट सकते। तदुपरांत सेनाधीश ने वृक्षों की जगह कर स्वरूप धन की मांग रख दी तो बिश्नोई जन बोले हम आपको पैसे देंगे तो आप अन्यत्र जाकर हरे वृक्ष काटोगे फलस्वरूप हम पाप के भागी बनेगे। जीते-जी हम वृक्ष कटने नहीं देंगे अच्छा होगा आप यहां से जोधपुर को प्रस्थान कर लें। इस प्रकार बिश्नोईयों के प्रबल विरोध के बाद विवशतापूर्वक सेनाधीश ने लौटकर जब यह वृतांत गिरधर को सुनाया तो वह क्रोधाग्नि में दहक उठा और उन बिश्नोई लोगों के पास आ धमका। क्रोधित गिरधर अपने राजकीय पद के मद्द में चुर होकर कहने लगा की आप लोगो की इतनी हिम्मत की आप राजा के आदेश की अवहेलना करो। । हम हुक्मरान के आदेशानुसार ही यहां वृक्ष काटने आये हैं। आप लोग हमें वृक्ष काटने से नहीं रोक सकते। प्रत्युत्तर में अणदे बिश्नोई ने कहा क्षमा करें मंत्रीवर हमें पता नहीं था कि आप कौन है पर कोई भी हो शायद आपको ध्यान नहीं कि आप बिश्नोईयों के गांव क्षेत्र में हरे वृक्षों की कटाई की बात कर रहे है अगर जोधपुर से इसी मंशा से यहां आए है तो अच्छा ही होगा आप वापस प्रस्थान करलें। गिरधर ने उनकी एक न सुनी और सैनिको को वृक्ष काटने का आदेश दिया पर बिश्नोईयों की आधिक्य उपस्थिति को देख सैनिक भी साहस नहीं कर पाए, इस प्रकार गिरधर की एक न चली तो वहां से चुपचाप जोधपुर को निकल गया।
गिरधर भण्डारी पर कोपित क्रोध से उसके तमतमाते चेहरे से बिश्नोईयों ने सहसा अंदाज लगाया की यह ऐसे तो नहीं बैठेगा । कल हो न हो यह सेना लेकर फिर आ धमके तब हम इसके प्रकोप से बच भी नहीं सकते क्यों हम इसके लिए आसपास के गांवों के सभी बिश्नोईयों को यहां इक्कठा करें।
इस प्रकार आपसी सलाह कर बिश्नोईयों ने पास के 84 गांवों को चिठ्ठी लिखी जिसमें घटित सम्पूर्ण वृतांत को लिखने के साथ यह भी लिखा:
इस प्रकार लिखकर अतिशीघ्र चिठ्ठी भेजकर सभी बिश्नोईयों को धर्म रक्षार्थ आगाह किया। जैसे-जैसे सूचना मिली तो 84 गांवों के बिश्नोई जन खेजङली को चल दिये। शाम होते-होते कई लोग खेजङली तो कई गुङा पहुँचे।
उधर गिरधर हताश किंतु बिश्नोईयों के प्रति द्वेष भाव के साथ जोधपुर पहुंचा। वहां जाकर खेजङली के बारे में क्रोधित मन से बढ़ा-चढ़ा कर राजा अभयसिंह से कहा। अपना अपमान सुन राजा सहसा क्रोधित तो हुए परंतु ज्यादा देर तक नहीं क्योंकि क्रोध उनका स्वभाव नहीं था। पर गिरधर चुप नहीं बैठ सका उसने फिर से कहा राजन्! आखिर कबतक इसी प्रकार ये लोग आपकी आज्ञा की अवहेलना धर्म के नाम करते रहेंगे अगर उन्हें दंडित नहीं करेंगे तो इनके धर्म-ढोंकले तो दिनोंदिन बढ़ते ही जाएंगे। इसलिए महाराज मेरा मानना है कि मुझे बड़ी सेना के साथ वहां जाने की अनुमति दें। हम वहां के सारे के सारे वृक्ष कटवा देंगे, जिन पर उन्हें इतना गर्व है फिर “बचेगें हाथ, ना होगी करताल” !
तो अभयसिंह कहने लगे गिरधर तुम्हारी मनोदशा मेरे समझ से परे है आखिर हम राजकीय कार्य के लिए प्रजा की धार्मिक मान्यताओं से खिलवाड़ करें यह किस प्रकार उचित है। गिरधर कहने लगा हे राजन्! उन्होंने आपके स्वाभिमान को ठेस पहुंचाई है। प्रजा का कार्य ही होता है जब राज्य किसी भी प्रकार की संकटकालीन स्थिति( आर्थिक/बाहरी आक्रमण) में हो तो सब मिलकर सहायता करें। और इस आर्थिक संकटकालीन समय में बिश्नोई तो किसी भी प्रकार की सेवा से मुक्त रहना चाहते है ओर तो ओर न वृक्ष काटने देते है और न ही कर देने को तैयार है। ऊपर से राजा के आदेश की अवहेलना , राजकीय कार्य में बाधा डालना आदि इनके जुर्म, उन्हें तो दंड मिलना ही चाहिए।
अंततः इस प्रकार गिरधर ने अपनी कूटनीति से महाराज को अपने पक्ष में फांस ही लिया। वह राजा अभयसिंह के आदेशानुसार बड़ी सी सेना और मजदूरों को साथ लेकर खेजङली को निकल पड़ा शाम को खेजङली पहुंचकर वहां अपने तंबु लगाए। गिरधर को गांव के बाहर डेरा डाले देख बिश्नोई लोग सचेत हो गये और इसी विचलन के साथ रात भर सो न सके की आखिर सुबह क्या होगा। इसलिए बिश्नोईयों के पंच विचार-विमर्श करने लगे आखिर कैसे रोकेगे सुबह इस विनाश को; निश्चित ही सुबह गिरधर योजनानुसार रूंख काटने का प्रयास करेगा साथ ही हम लोग तो किसी भी प्रकार उनसे मुकाबला करने में असक्षम से प्रतीत हो रहें है क्योंकि उसके पास भारी सशस्त्र-सैन्यबल है और हम कुछेक लोग जिनके पास न तो शस्त्र है और न पर्याप्त बल जिससे उन्हें मात दे पाये, बात यही नहीं खत्म होगी हिंसा से तो हिंसा ही बढ़ेगी जो की हमारी मनोवृत्ति के विपरीत है। गुरु जांभोजी ने भी कहा है “जो मनुष्य जीवन में सद्कर्म न करके ईर्ष्या, द्वेष, लालच, मद्दमोह में डूबा हाहाकार करते हुए विनाश की भावना से आगे बढ़ता है वह निश्चित ही दुर्गति का भाजन होता है” यदि हम धैर्य और संयम से चले तो अवश्य ही परिणाम हमारे पक्ष में होंगे। हमें बड़े निर्णय के साथ सुबह आगे बढ़ना होगा। अगर गिरधर प्रातःकाल पुनः पेड़ काटने की नापाक कोशिश करे तो हम बिना विरोध किए उन वृक्षों से लिपट जाएंगे जिन्हें काटने का प्रयास वो करेंगे। हम वृक्षों के रक्षार्थ अपने आपको समर्पित कर देंगे लेकिन जीते जी रूंख नहीं कटने देंगे। सब लोग आपसी सहमति कर अपने आराध्य देव जांभोजी का स्मरण कर सोने का असफल प्रयास करते रहे पर ऐसी परिस्थिति में नींद भला कैसे आती। उधर सुर्योदय हुआ लेकिन हमेशा की तुलना थोड़ी देरीसे, आज अरुणोदय की बेला में पक्षियों की चहचहाट गिरधर के सैन्यसज की कदमताल से कहीं दब से गए। गिरधर के सैन्य जत्थे को आते देख बिश्नोई लोग भी पेड़ों की तरफ चल दिये। आज गिरधर पूरी तैयारी के साथ पहुँचा वहीं दूसरी तरफ बिश्नोईयों के समक्ष गिरधर भंडारी की प्रशासनिक शक्ति के दुरुपयोग से ऐसा जाल-जंजाल बुन गया , जिसके कारण उन्हें अपने अक्ष में अनेकानेक विग्रह और अपनी धार्मिक मान्यताओं पर संकट दिखलाई पड़ने लगे। पर संकट हरण करने वाली उच्च स्तरीय प्रतिभा का उद्गम स्त्रोत ईश्वर ही है तो भला कैसे बिश्नोईयों को विचलित होने देते; जैसे ही गिरधर भंडारी ने वृक्ष काटने का आदेश दिया कुल्हाङी लिए कुछ मजदूर पेड़ों की ओर बढ़ने लगे इधर बिश्नोई लोग सकपकाए से खड़े थे। जैसे ही पेड़ पर पहली कुल्हाङी चलती उससे पहले ही वीरांगना “मां अमृता” ने उच्च स्वर में उद्यघोष किया -
सिर सांठे रुंख रहे तो भी सस्तो जाण
अर्थात् “अपना सिर देकर भी हम वृक्ष बचा पाए तो भी सस्ता ही है” और पेड़ से लिपट गयी। यह उद्यघोष उपस्थित बिश्नोई जनमानस के हृदय पटल पर अंकित हो गया और सभी बिश्नोईयों में नए सिरे से मनोबल उभरा और उसी के सहारे कटते वृक्षों को बचाने फिर उनकी तीन पुत्रियां व रामूजी खोङ भी लिपट गये, पुरुषों में सर्वप्रथम अणदोजी फिर बहुत से बिश्नोई लोग-लुगाई अपने आराध्य गुरु को मन ही मन स्मरण कर वृक्षों से ऐसे लिपट गए जैसे चंदन से पेड़ पर साँप लिपटे हों। पेड़ों से लिपटे बिश्नोईयों को देख सैनिकों के हाथ एक पल के लिए रुक से गये। यह देख गिरधर आग बबुला हो उठा उसने फिर से
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